इस पाठ में लेखक ने एक ऐसे विलक्षण व्यक्ति का चित्रण किया है, जो साधारण होते हुए भी असाधारण है। बालगोबिन खेती करते हुए भी कबीरपंथी साधु थे। वे वर्षा की रिमझिम में धान रोपते हुए जहाँ गीत गाते थे और सर्दियों में प्रभातफेरियाँ और गर्मियों में घर पर भक्तों के बीच पद गाते थे। वे सामाजिक परम्पराओं और रीति-रिवाजों को पाखण्ड भर मानते थे। बालगोबिन गृहस्थ होते हुए भी संन्यासी जीवन जीते थे।
लेखक परिचय
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में सन 1889 में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता का निधन होने के कारण इनका जीवन अभावों व कठिनाइयों में बीता। दसवीं की शिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे सन् 1920 में राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए इस कारण इन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। सन् 1968 में इनका देहावसान हो गया । ये एक बेहद प्रभावशाली पत्रकार थे। गद्य की विविध विधाओं के लेखन में इन्होंने ख्याति अर्जित की। इनकी रचनाओं में जहां एक ओर समाज सुधार व राष्ट्र उत्थान के स्वर हैं तो दूसरी ओर बाल सुलभ जिज्ञासा के दर्शन भी हैं।
बालगोबिन भगत Class 10 Hindi Kshitij
बाल गोबिन भगत का व्यक्तित्व बालगोबिन भगत मझौले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से ऊपर थी और बाल पक गए थे। उनके चेहरे पर चमकती सफेद दाढ़ी थी। कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में केवल लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की-सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से काला कंबल ओढ़ लेते। माथे पर रामानंदी चंदन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते।
बालगोबिन भगत साधु नहीं, गृहस्थ थे। उनका एक बेटा और पतोहू थे। खेती-बाड़ी और एक साफ़-सुथरा मकान भी था। वे साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले थे। वे कबीर को ‘साहब’ मानते थे। किसी से बिना वजह झगड़ा नहीं करते थे। कभी किसी की चीज को नहीं लेते थे। खेती से जो भी पैदा होता, उसे सिर पर लादकर पहले ‘साहब’ के दरबार ले जाते और ‘प्रसाद’ के रूप में जो मिलता, उसी से गुजर-बसर करते।
लेखक बालगोबिन भगत के मधुर गीतों पर मुग्ध था। आषाढ़ की रिमझिम वर्षा में जब लोग धान की रोपाई करते थे, तो भगत अलमस्त होकर गाया करते थे। उन दिनों बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गान से कानों को झंकृत कर देते थे। उनके गीतों से बच्चे, औरतें, हलवाहे आदि सभी झूमते हुए एक विशेष क्रम से अपना काम करते हुए तन्मय हो जाते थे। सब ओर उनके संगीत का जादू छा जाता था।
भादों की अँधियारी में उनकी खँजड़ी बज उठती थी। जब सारा संसार सन्नाटे में सोया होता तब बालगोबिन का संगीत जाग रहा होता। कार्तिक आते ही उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे जाने कब जगकर नदी-स्नान को जाते। लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर खँजड़ी लेकर बैठ जाते| यह क्रम फागुन तक चलता था। गर्मियों के आते ही उनकी ‘संझा’ के गीतों से शाम शीतल हो जाती थी। वे घर के आँगन में आसन जमा बैठते। जहाँ गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते थे। ताल-स्वर धीरे-धीरे तन-मन पर हावी होने लगता और बालगोबिन नाचने लगते।
बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया, जिस दिन उनका बेटा मरा। उनका इकलौता बेटा सुस्त और मन्द-बुद्धि था। इसीलिए भगतजी उसका विशेष ख्याल रखते थे। बड़े शौक से उसकी शादी करवाई थी, पतोहू भी बड़ी सुशील थी। लेखक ने जब सुना कि बालगोबिन का बेटा मर गया, तो वह भी उसके घर गया। वहाँ देखा कि बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा है। कुछ फूल उस पर बिखरे हैं। बालगोबिन उसके सामने ज़मीन पर आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं। पतोहू को रोने के बदले उत्सव मनाने को कह रहे हैं। उनके अनुसार आत्मा परमात्मा के पास चली गई। यह तो आनंद की बात है।
उन्होंने बेटे की चिता को आग भी पतोहू से ही दिलवाई। श्राद्ध की अवधि पूरी होते ही भगत ने बहू के भाई को बुलाकर आदेश दिया कि इसकी दूसरी शारी करा देना। पतोहू जाना नहीं चाहती थी। वह वहीं रहकर बालगोबिन की सेवा करना चाहती थी, लेकिन भगत का निर्णय पक्का था। वे बोले कि यदि तू नहीं जाएगी, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा। इस दलील के आगे पतोहू की न चली।
बालगोबिन की मृत्यु उन्हीं के अनुरूप हुई। हर वर्ष तीस कोस दूर गंगा-स्नान करने जाते थे। वे पैदल ही खंजड़ी बजाते जाया करते थे और चार-पाँच दिन की यात्रा में बाहर कुछ नहीं खाते थे। लम्बे उपवास से लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त हो गई। बुखार में भी नेम-व्रत नहीं छोड़ा। लोगों ने आराम करने को कहा तो हँसकर टाल दिया। उस दिन भी संध्या में गीत गाए| भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो भगत नहीं रहे, उनका निर्जीव शरीर पड़ा था।
शब्दार्थ
मझौला – मध्यम, जटाजूट – लम्बे बालों की जटाएँ, कनफटी – कानों के स्थान पर फटी हुई, कमली – कंबल, रामानन्दी – रामानन्द द्वारा प्रचारित, पतोहू – पुत्रवधू, खरा उतरना – सही सिद्ध होना, दो-टूक बात करना – स्पष्ट कहना, खामखाह – बेकार का, कुतूहल – जानने की उत्सुकता, मठ – आश्रम, कलेवा – सवेरे का जलपान, मेड़ – खेत के किनारे मिट्टी के ढेर से बनी ऊँची-लम्बी खेत को घेरती आड़, पुरवाई – पूरब की ओर से बहने वाली हवा, कोलाहल – शोर शराबा, खँजड़ी – ढफली के ढंग का किंतु आकार में उससे छोटा एक वाद्य यंत्र, निस्तब्धता – सन्नाटा, प्रभातियाँ – प्रातः काल गाए जाने वाले गीत, टेरना – सुरीला आलाप, लोही – प्रात:काल की लालिमा, कुहासा – कोहरा; आवृत – ढका, तल्लीनता – एकाग्रता, क्रिया-कर्म – मृत्यु के बाद की रस्में, दलील – तर्क, सन्त समागम – सन्तों से मेलजोल, संबल – सहारा, टेक – आदत, छीजने लगे – कमजोर होने लगे, तागा टूट गया – साँसों की डोर समाप्त हो गई, पंजर – निर्जीव शरीर।
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