उत्साह कविता Short Summary
उत्साह एक आह्वान गीत है। इस कविता में कवि ने बादल से घनघोर गर्जन से आकाश को बार-बार भर देने का आग्रह करते हैं। कवि बादल को बरसकर सबकी प्यास बुझाने और गरजकर सुखी बनाने का आग्रह करते हैं। कवि के अनुसार बादल के गर्जन में क्रांति की चेतना निहित है। कवि बादल से कहते हैं कि अज्ञात दिशा से गर्जन कर वह लोगों में क्रांतिकारी चेतना जगाए, लोगों को संघर्ष के लिए उत्साहित करे। धरती को अपनी शीतल धारा से ही नहीं, क्रांति के आह्वान से भी शीतल एवं सुखी बनाए।
अट नहीं रही है Short Summary
अट नहीं रही में कवि ने फाल्गुन मास की मस्ती और शोभा का मनोरम वर्णन है। फागुन की सुगंध घरों के कोने-कोने में पहुँचकर लोगों को मदमाने लगती है। वे कल्पना की ऊँची उड़ानें भरने लगते हैं और उनका जीवन और भी सुंदर बन जाता है। दूर-दूर तक सभी पेड़ों की डालियाँ हरे-हरे और कहीं लाल पत्तों से भी डोल रही हैं। रंग-बिरंगे खुशबू वाले विभिन्न फूलों से अटी डालियाँ ऐसी लगती हैं मानो उन्होंने अपने गले में मालाएँ पहन रखी हैं। यह सब प्राकृतिक छटा में इतनी मोहकता ला देता है कि वह समा नहीं पा रही है और सब ओर से बाहर झलक रही है।
उत्साह कविता Explanation Class 10 Kshitij Hindi
बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ललित ललित, काले घुँघराले
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो
बादल, गरजो!
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दोबादल, गरजो!
शब्दार्थ: धाराधर – बादल, उन्मन – कहीं मन न टिकने की स्थिति, निदाघ – गर्मी, सकल – सब, सारे, वज्र – कठोर, भीषण, अनंत – जिसका अंत न हो, तप्त – तपती हुई, शीतल – ठंडा, विद्युत – बिजली, छबि – सौंदर्य, उर – हृदय, नूतन – नया, नवीन, विकल – बेचैन।
कवि बादल को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे बादल ! तुम गरजो! समस्त आकाश को घेरघेर कर मूसलाधार वर्षा करो। कवि काले-काले बादलों की तुलना बच्चों के घुघराले बालों से करते हैं। उनके अनुसार ये घनघोर घटाएँ मानो मन की कल्पना से पाले गए घुघराले बालों के समान सुंदर हैं और जिनके हृदय में बिजली की अनोखी शोभा छिपी हुई है। घने काले बादलों के बीच चमकती बिजली की रेखा मानो नया जीवन देने वाली होती है। कवि बादलों कहते हैं कि तुम्हारे हृदय में बिजली की आभा है तथा तुम नव जीवन प्रदान करने वाले वाले हो । कवि कहता है कि तुम वज्र के समान कठोर हो तथा संसार को नवीन चेतना से भरने वाले हो । अतः अपनी गर्जना से संसार में परिवर्तन तथा क्रांति ला दो।
आकाश में उमड़ते-घुमड़ते घनघारे बदलों को देख कर कवि को ऐसा लगता है कि वे कुछ बेचैन-से हैं और इसलिए वे कुछ अनमनेसे दिखाई दे रहे हैं। अचानक कवि को याद आता है कि समस्त जगत के लोग भीषण गर्मी से परेशान हैं। शायद इसीलिए आकाश की किसी अनजान दिशा से आकर ये काले-काले बादल संपूर्ण तपती हुई धरती को शीतलता प्रदान करने के लिए बेचैन हो रहे हैं। इसलिए कवि उन्हें सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे बादल ! तुम बरस कर इस गर्मी के ताप से तपी हुई इस धरती को शीतलता प्रदान करो। हे बादल! गरज कर बरसो।
काव्य सौंदर्य-
- कविता खड़ी बोली में रचित है, किंतु कहीं-कहीं संस्कृत के तत्सम शब्द, जैसे- विद्युत, विकल, निदाघ, अज्ञात, अनंत आदि का समावेश है।
- बादल का मानवीकरण किया गया है। संबोधनात्मक शैली है।
- ‘घेर घेर घोर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘घेर घेर’, ‘ललित ललित’ और ‘विकल विकल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘बाल कल्पना के-से’ में उपमा अलंकार है।
अट नहीं रही है Explanation Class 10 Kshitij Hindi
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मद-गंध-पुष्प-माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
शब्दार्थ: अट नहीं रही है – समा नहीं रही है, आभा – चमक, पर – पंख, पाट-पाट – खाली जगह को भरना, शोभाश्री – सुंदरता से भरपूर, पट नहीं रही – समा नहीं रही।
कवि फागुन मास की मादकता का वर्णन करते हुए कहता है कि फागुन मास का सौन्दर्य इतना अधिक है कि उसकी शोभा समा नहीं पा रही है। इन दिनों प्रकृति का रूप-सौंदर्य इतना मनमोहक होता है कि मन कल्पनाओं के पंख लगाकर सुदूर आकाश में उड़ने को बेचैन हो उठता है। रंग-बिरंगे अनगिनत फूल अपनी सुगंध से सबको मुग्ध कर देते हैं। आम के पेड़ों पर बौर आने लगते हैं और उनकी सुगंध से मस्त होकर कोयल कूकने लगती है। कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि मानो फागन के साँस लेने पर सब जगह सगंध फैल जाती है| वातावरण में ऐसी मादकता भर जाती है कि मन रूपी पक्षी कल्पनाओं के पंख लगाकर खुले आसमान में उड़ने के लिए आतुर हो उठता है। चारों ओर प्रकृति का इतना सुंदर रूप दिखाई देता है कि चाहकर भी कोई इस मनमोहक सुंदरता से अपनी आँख नहीं हटा सकता। फागुन मास वसन्त ऋतु के प्रभाव से प्रकृति में नवीनता छा जाती है। इस मास में पेड़-पौधों की डालियाँ हरेहरे पत्तों से लद जाती हैं। इस सुदंरता का कोई ओर-छोर कवि को दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए कवि कहते हैं कि फाल्गुन की सुंदरता तो अट नहीं रही है।
काव्य सौंदर्य-
- कवि ने खड़ी बोली में इस कविता की रचना की है।
- कविता में चित्रात्मकता का गुण कूट-कूटकर भरा हुआ है।
- ‘फागुन की तन’ में मानवीकरण अलंकार है।
- घर-घर, पर-पर, पाट-पाट में पनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
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