कवि ने अपने जीवन को दुखों से भरा बताया है| उसके जीवन में प्रिय प्रेम भी स्वप्न की तरह मधुर और क्षणिक रहा।इसलिए संसार उसे निस्सार और नीरस लगता है। कवि के अनुसार उनका जीवन स्वप्न के समान एक छलावा रहा है। जीवन में जो कुछ वो पाना चाहते हैं वह सब उनके पास आकर भी दूर हो गया। कवि कहते हैं कि मेरे जीवन की कथा को जानकर तुम क्या करोगे, अपने जीवन को वे छोटा समझ कर अपनी कहानी नही सुनाना चाहते। लोग एक-दूसरे के दुखों को न समझकर मजाक उड़ाते हैं इसलिए कवि भी अपनी आत्मकथा को दबाकर रखना चाहते हैं| वे दुखों से भरी अपनी अति सामान्य कथा किसी को नहीं सुनाना चाहते|

NCERT Summary for Chapter 3 Aatmkathya Hindi Kshitiz Class 10

कवि परिचय

जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में वाराणसी में हुआ। प्रसाद जी स्थितियां अनुकूल न होने के कारण काशी के क्वींस कॉलेज से आठवीं से आगे नहीं पढ़ पाए। बाद में घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी का अध्ययन किया। छायावादी काव्य प्रवृति के प्रमुख कवियों में ये एक थे। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

प्रमुख कृतियाँ – चित्राधार, कानन-कुसुम, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कंकाल, तितली और इरावती, आकाशदीप, आंधी और इंद्रजाल।

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

शब्दार्थ: मधुप – भौंरा, मन रूपी भौंरा, अनंत – जिसका अंत न हो, नीलिमा – नीले आकाश का विस्तार, असंख्य – अनगिनत, व्यंग्य-मलिन – खराब ढंग से निंदा करना, उपहास = मज़ाक, दुर्बलता – कमज़ोरी, गागर – घड़ा, मटका, रीती – खाली।

कवि कहते हैं कि इस संपूर्ण विश्व में असंख्य प्राणिजगत के अपने असंख्य इतिहास हैं। प्रत्येक व्यक्ति का मन रूपी भौंरा प्रेम गीत गाता हुआ अपनी कहानी सुना रहा है। झरते पत्तियों की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि आज असंख्य पत्तियाँ मुरझाकर गिर रही हैं यानी उनकी जीवन लीला समाप्त हो रही है। स प्रकार अंतहीन नीले आकाश के नीचे न जाने कितने अनगिनत जीवन का इतिहास हर पल बन रहा है और बिगड़ रहा है। इस प्रकार यह संपूर्ण जगत चंचल है, कुछ भी यहाँ स्थिर नहीं, कुछ भी शाश्वत नहीं। यहाँ तो प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाने में ही व्यस्त हैं। कवि कहते हैं कि यह सब जानते हुए भी तुम मुझसे अपेक्षा करते हो कि अपनी दुर्बलताओं और निराशा से भरे जीवन की कथा सुनाऊँ| वे कहते हैं कि मेरी वेदनाओं से भरी जिंदगी में जयादा कुछ प्राप्त नहीं हुआ है। वेदनाओं की अनुभूति अवश्य हुई है, लेकिन सुख-संतोष की प्राप्ति नहीं हुई। अतः इस जीवन रूपी घड़े को खाली पाकर तुम सुखी न हो सकोगे। मेरी यह जीवन-कथा सर्वथा नीरस है।

काव्य सौंदर्य:

  • खड़ी बोली में लिखित इस काव्यांश में कुछ तत्सम शब्दों की छटा दिखाई देती है जैसे – मधुप, अनंत-नीलिमा, व्यंग्य
  • मलिन, जीवन-इतिहास आदि।
  • गुन-गुना, कर कह, कौन कहानी में अनुप्रास अलंकार है।
  • गागर रीती में रूपक अलंकार है।
  • इसमें छायावादी दृष्टिकोण है।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।

शब्दार्थ: विडंबना – छलना, उपहास का विषय, प्रवंचना – धोखा, उज्ज्वल गाथा – संदर कहानी, मुसक्या कर – मुसकराकर।

कवि कहते हैं कि उनका जीवन स्वप्न के समान एक छलावा भर रहा। जीवन में जो कुछ सुख वे पाना चाहते थे वह सब तो उनके पास मानो आकर भी दूर हो गया। यही उनके जीवन की विडंबना है। कवि अपने भोलेपन पर तरस खाकर कहते हैं कि दूसरों के द्वारा छले जाने की कहानी मैं कवि अपनी सरलता दूसरों को बताकर अपनी हंसी नहीं उड़वाना चाहता। उसने जहां-जहां धोखा खाया है उसे वह दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहता। कवि कहते हैं जिस प्रकार सपने में व्यक्ति को अपने मन की इच्छित वस्तु मिल जाने से वह प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार मेरे जीवन में भी प्रेम एक बार आया था, किंतु स्वप्न की भाँति वह टूट भी गया। मेरी आशा-आकांक्षाएँ सारी मिथ्या, छलावा भर बनकर रह गईं क्योंकि सुख का स्पर्श पाते-पाते भी मैं वंचित रह गया।

काव्य सौंदर्य:

  • खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का पुट है।
  • इसमें नवीन उपमाओं और रूपकों का सुंदर समावेश हुआ है।
  • इसमें छायावादी गुण और रहस्यवाद की झलक मिलती है।

जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?
क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

शब्दार्थ: अरुण – लाल, कपोल – गाल, अनुरागिनी – प्रेम करने वाली, उषा – भोर, स्मृति – याद, पाथेय – सहारा, पंथा – राह, मार्ग, कंथा – अंतर्मन|

कवि अपनी अधूरी कामना की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि सुख का आभास दिखाने वाले स्वप्न जागते ही लुप्त हो गए । कवि के लिए सुख अधूरा ही रह गया । सुख की अभिलाषा में वह बाहें फैलाए ही रह गया और सुख उसके आलिंगन में आए बिना ही मुस्कराकर पीछे हट गया। कवि कहते हैं कि मेरी प्रेयसी के सुंदर लाल गालों की मस्ती भरी छाया में भोर की लालिमा मानो अपनी माँग भरती थी, ऐसी रूपसी की छवि अब मेरा पाथेय बनकर रह गई है क्योंकि उसे मैं वास्तव जीवन में पा न सका। मेरे प्यार के वे क्षण मिलन से पूर्व ही छिटक कर दूर हो गए। इसलिए मेरे जीवन की कथा को पर्त दर पर्त खोल कर यानी जानकर तुम क्या करोगे। कवि अपने जीवन को अत्यंत छोटा समझकर किसी को उसकी कहानी सुनाना नहीं चाहते। इसमें कवि की सादगी और विनय का भाव स्पष्ट होता है। वे कहते हैं कि अभी मेरे जीवन की घटनाओं को कहानी के रूप में कहने का समय नहीं आया है। इसलिए उनको अभी शांति से सोने दो यानी मेरे अतीत को मत कुरेदो।

काव्य सौंदर्य:

  • स्मृति-पाथेय में रूपक अलंकार है।
  • इसमें छायावादी शैली की स्पष्ट झलक मिलती है।
  • ‘थकी सोई है मेरी मौन व्यथा’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • इसमें कवि का यथार्थवाद झलकता है।