इस पेज पर सूरदास के पद NCERT Summary दिया गया है जिससे students पाठ को समझने सहायता मिलेगी| कक्षा 10 के Hindi Kshitiz Textbook का प्रथम पाठ सीबीएसई बोर्ड के छात्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है| 

NCERT Summary for Chapter 1 Surdas ke Pad Hindi Kshitiz Class 10

पहले पद में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि वे बहुत भाग्यशाली हैं जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम में नहीं बँधे। वे कहती हैं कि आप ज्ञानी हैं परन्तु हम ब्रज की भोली गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में ऐसी कृष्णमय हो गई हैं, जैसे गुड़ की मिठास से आकर्षित होकर चींटी गुड़ में चिपक जाती है।

दूसरे पद में गोपियाँ कहती हैं कि उनके मन की इच्छाएँ मन में ही दबकर रह गई हैं। उन्हें कृष्ण के लौटने की आशा थी और यही आशा उनका जीवन थी। परंतु अब उद्धव के योग संदेश ने इन सब पर पानी फेर दिया है। वे विरह की अग्नि में जल रही हैं और उनके सब्र का बाँध टूटा जा रहा है।

तीसरे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण ही उनके लिए एक मात्र सहारा हैं। जैसे हारिल पक्षी अपनी लकड़ी के टुकड़े को कभी नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम भी कृष्ण को कभी नहीं छोड़ सकतीं। दिन-रात, सोते-जागते हम उनका ही ध्यान करती हैं। वे उद्धव द्वारा दिए गए योग सन्देश को कड़वी ककड़ी के समान मानती हैं।

चौथे पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि मथुरा जाकर कृष्ण ने राजनीति भी सीख ली है। वे पहले से ही चतुर हैं और अब अधिक चतुर बन गए हैं। तभी तो तुम्हें यहाँ हमारे पास योग का ज्ञान देने के लिए भेजा है। वे दूसरों से तो अनीति या अन्याय छोड़ने की बात करते हैं, किंतु हमारे साथ अन्याय करते हैं| एक राजा का धर्म होता है कि वह प्रजा का हित सोचे| परन्तु श्रीकृष्ण गोपियों को सता कर राजधर्म नहीं निभा रहे हैं|

कवि परिचय

कवि सूरदास का जन्म सन् 1478 में माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र में, जबकि दूसरी मान्यता के अनुसार दिल्ली के सीही में माना जाता है। इनके गुरु महाकवि वल्लभाचार्य थे तथा अष्टछाप कवियों में ये सबसे अधिक प्रसिद्ध रहे । ये वात्सल्य व शृंगार के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनके काव्य में कृष्ण और गोपियों का प्रेम सहज मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा करता है। उनकी कविता में ब्रजभाषा का निखरा रूप है। सन् 1583 में पारसौली में इनका निधन हुआ। इनकी प्रमुख रचनाएं – सूरसागर, साहित्य लहरी, सूर सारावली हैं|

सूरदास के पद की व्याख्या


ऊधौ, तुम ही अति बड़भागी।

ऊधौ, तुम ही अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहं तेल की गागरि, बूंद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउं न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चांटी ज्यौं पागी।।

शब्दार्थ: बड़भागी – भाग्यशाली, अपरस – अछूता, तगा – धागा, नाहिन – नहीं, पुरनि पात – कमल का पत्ता, गागरि – मटकी, माहँ – में, पाउँ – पाँव, बोरयौ – डुबोया, परागी – मुग्ध होना, भोरी – भोली, गुर – गुड़, पागी – लिपटी हुई।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे बहुत भाग्यशाली हैं। श्रीकृष्ण के पास रहते हुए भी वे उनसे प्रेम नहीं करते। वे उनके स्नेह से अछूते रहे और प्रेम बंधन में नहीं बँधे। आप कृष्ण के साथ रहकर भी प्रेम-बंधन से उसी प्रकार मुक्त रहे जिस प्रकार कमल का पत्ता हमेशा जल में रहता है, परन्तु उस पर जल का एक भी दाग नहीं लग पाता। अथवा तेल की मटकी को जल के भीतर डुबाने पर भी उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती है। परन्तु हम तो भोली-भाली अबलाएँ हैं, जो अपने प्रियतम कृष्ण की रूप-माधुरी पर उसी प्रकार आसक्त होकर उसके प्रेम में मोहित हो गई हैं, जैसे चींटी गुड़ पर आसक्त होकर उसके ऊपर चिपट जाती है और फिर उससे अलग नहीं हो पाती है और वहीं अपने प्राण दे देती है।

काव्य सौंदर्य

  • इसमें ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें संबोधनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
  • प्रीति-नदी में रूपक अलंकार है।
  • पुरइनि पात, तेल की गागरि और गुर चाँटी ज्यौं पागी में दृष्टांत अलंकार हैं।
  • मन की मन ही मांझ रही।।
  • कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
  • अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
  • अब इन जोग संदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
  • चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उत तें धार बही।
  • ‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।

मन की मन ही माँझ रही।

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।

शब्दार्थ: माँझ – में, अवधि – समय। अधार – सहारा, आवन की – आने की, बिथा – पीड़ा, दही – जली, बिरह – बिछुड़ना, गुहारि – रक्षा के लिए पुकारना, धार – योग की धारा, धीर – धैर्य, धरहिं – रखें, मरजादा – मर्यादा, न लही – नहीं रखी।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की इच्छाएँ मन में ही रह गईं। उन्होंने सोचा था कि कृष्ण यहाँ लौटकर जब आयेंगे तब हम उनके विरह में सहे हुए सम्पूर्ण कष्टों की गाथा उन्हें सुनायेंगी। परन्तु अब तो उन्होंने स्वयं ना आकर योग-साधना का सन्देश भेजा है। अब तो वे किसी से कुछ भी नहीं सकती हैं। योग की इन बातों ने हमारी विरह की व्यथा को, हमारे मन के दुख-कष्ट को और भी बढ़ा दिया है। अब तो ऐसा लगता है कि हम विरह की आग में जल रही हैं। हम गोपियाँ जिन कृष्ण के आगे अपने दुख कम करने के लिए प्रार्थना कर सकती थीं, वहीं से तो आप यह योग-संदेश ला रहे हैं। गोपियाँ समझ जाती हैं कि कृष्ण ने ही उद्धव को ज्ञान-उपदेश देने के लिए उनके पास भेजा है। अब वे कैसे धीरज रखें। वे कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने उनकी मर्यादा का भी ध्यान नहीं रखा। इसलिए उनका धैर्य भी जवाब दे रहा है।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रजभाषा में संबोधनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
  • अवधि अधार, आस आवन, बिरहिनि बिरह और धीर धरहिं में अनुप्रास अलंकार है।
  • सुनि-सुनि में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  • हमारैं हरि हारिल की लकरी।
  • मन क्रम बचन नंद -नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
  • जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि, कान्ह- कान्ह जक री।
  • सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
  • सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
  • यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौपौं, जिनके मन चकरी ।।

हमारे हरि हारिल की लकरी।

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि, कान्ह कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसों, ज्यौं कुरुई ककरी।
सु तौ ब्याही हमको लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तो सूर तिनहिं लै सौपों जिनके मन चकरी।

शब्दार्थ: हारिल – एक पक्षी विशेष जो हमेशा अपने पंजों में कोई न कोई लकड़ी का टुकड़ा या तिनका पकड़े रहता है, लकरी – लकड़ी, क्रम – कर्म, उर – हृदय, जक – रटन, धुन, निसि – रात, करुई – कड़वी, ब्याधि – बीमारी, न करी = न अपनाई गई, चकरी – चंचल, तिनहिं – उन्हें ही।

गोपियां उद्धव को संबोधित करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे लिए तो कृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी हर समय अपने पंजों में लकड़ी या तिनके को पकड़े रहता है, उसी प्रकार हम भी निरन्तर प्रेमनिष्ठा से कृष्ण का ध्यान करती रहती हैं। हमने मन, वचन और कर्म सेकृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को अपने मन द्वारा कस कर पकड़ लिया है। आपके मुख से निकला हुआ योग संदेश तो हमें कड़वी लकड़ी के समान प्रतीत होता है। जिस प्रकार कड़वी ककड़ी खाई नहीं जाती, उसी प्रकार उद्धव की योग-ज्ञान की बातें उनके द्वारा स्वीकार नहीं की जातीं। आगे वे कहती हैं कि योग के रूप में उद्धव ऐसा रोग लाए हैं, जो पहले कभी देखा-सुना नहीं गया अर्थात जिसे किसी ने नहीं जाना, अब गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वे इसे उन्हें सौंप दें, जिनके मन चकरी के समान चंचल होते हैं। हमारा मन तो श्रीकृष्ण में रम गया है, वहीं स्थिर हो गया है, अतः योग की कोई आवश्यकता नहीं है।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रज भाषा में लिखित यह पद गेय है।
  • ‘हमारे हरि हारिल’ और ‘नंद-नंदन’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘ज्यौं करुई ककरी’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘कान्ह-कान्ह’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  • ‘हमा हरि हारिल की लकरी’ में रूपक अलंकार है।
  • हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
  • समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
  • इक अति चतुर हुते पहिलैं हीं , अब गुरु ग्रंथ पढाए।
  • बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग-सँदेस पठाए।
  • ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए।
  • अब अपने मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
  • ते क्यौं अनीति करैं आपुन ,जे और अनीति छुड़ाए।
  • राज धरम तौ यहै ‘ सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।

शब्दार्थ: पढ़ि आए – सीख आए, मधुकर – उद्धव, पठाए – भेजे, हुते – थे, आगे के – पहले के, पर हित – दूसरों की भलाई, डोलत धाए – दौड़ते फिरना, फेर पाइहैं – फिर से पा लेंगी, आपुन – स्वयं, अनीति – अन्याय, जाहिं सताए – सताया जावे जाहिं – जाए।।

गोपियाँ कहतीं हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। गोपियाँ बात करती हुई व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि वे तो पहले से ही बहुत चालाक थे पर अब उन्होंने बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिए हैं जिससे उनकी बुद्धि बढ़ गई है तभी तो हमारे बारे में सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा है। पहले तो लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर दूसरों की भलाई के लिए जाया करते थे, किंतु तुम यहाँ हमारा कौन-सा भला कर रहे हो? वे कहती हैं कि जिस मन को श्रीकृष्ण ने उनसे चुरा लिया था, वे उनसे वापस ले लेंगी। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियां कहती हैं कि राजा का धर्म है अपनी प्रजा की रक्षा करना न कि उन्हें सताना।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं तत्सम और देशज शब्द भी मिलते हैं।
  • जोग – सँदेस में सामासिक प्रयोग है।
  • समाचार सब, गुरु ग्रंथ, बढ़ी बुद्धि और अब अपनै में अनुप्रास अलंकार की छटा दिखाई पड़ती है।